प्रेम रस मदिरा
सिद्धान्त-माधुरी (पद क्रमांक – ८६)
रचयिता एवं संगीत – जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज
स्वर – सुश्री ब्रज परिकरी देवी जी
रटु निशिदिन राधे नाम रे।
जासु नाम घनश्याम याम वसु, रट नित पूरनकाम रे।
जासु अनूपम रूपमाधुरी, ध्यावत सुंदर श्याम रे।
जासु गुनन गावत मन भावत, श्यामहुँ आठों याम रे।
जासु ललित लीला देखन हित, बिक्यो ब्रह्म बिनु दाम रे।
जासु धाम सनकादि लतन बनि, ठाढ़े उलटे पाम रे।
हम ‘कृपालु’ उन नाम रूप गुन, गावत लीला-धाम रे।।
भावार्थ – अरे मन! तू निरन्तर राधे नाम की रटना कर जिसके नाम को पूर्णकाम श्यामसुन्दर भी रटते हैं, जिसकी अनुपम रूप माधुरी का श्यामसुन्दर निरन्तर ध्यान करते हैं, जिसके गुणों को प्रेम-विभोर होकर श्यामसुन्दर निरन्तर गाया करते हैं। जिसकी नित्य नव लीलाओं को देखकर ब्रह्म श्यामसुन्दर भी बिना दाम के बिके हुए हैं। जिसके धाम में सनकादिक परमहंस भी लता वृक्ष बन कर उलटे पैर खड़े हुए हैं। ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि हम उनके नाम, रूप, गुण, लीला, धाम को सदा गाया करते हैं।
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