प्रेम रस मदिरा
सिद्धान्त-माधुरी (पद क्रमांक – २४)
रचयिता एवं संगीत – जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज
स्वर – सुश्री ब्रज परिकरी देवी जी
अरे मन! हरि, हरिजन नहिं दोय।
जहँ हरि तहँ हरिजन, जहँ हरिजन, तहँ हरि विलग न होय।
दोऊ रहत दास दोउन को, मरम न जाने कोय।
दोउ कर पर उपकार निरंतर, पतितन-मन मल धोय।
जल, तरंग दोउ नाम उपाधी, वस्तुतस्तु इक सोय।
पै ‘कृपालु’ हरिजन रूपी हरि, ही सों स्वारथ तोय।।
भावार्थ – हे मन! श्री कृष्ण एवं उनके भक्त वस्तुतः पृथक् नहीं हैं। जहाँ श्रीकृष्ण रहते हैं वहीं भक्त रहते हैं, एवं जहाँ भक्त रहते हैं वहीं श्रीकृष्ण रहते हैं। ये दोनों एक दूसरे से पृथक् किसी भी काल में हो ही नहीं सकते।
“मयि ते तेषु चाप्यहम्” (गीता) श्रीकृष्ण एवं उनके भक्त एक दूसरे को प्रसन्न करते हुए एक दूसरे के भक्त बने रहते हैं। इस रहस्य को बड़े-बड़े विद्वान् भी नहीं समझ पाते हैं। दोनों ही निरन्तर परोपकार की भावना से सांसारिक पतित जीवों के मन के महान् से महान् पापों को धोया करते हैं। जैसे जल एवं तरंग ये दोनों नाम औपाधिक रूप से ही हैं, वास्तव में दोनों ही नाम एक ही वस्तु के हैं। ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि – यद्यपि दोनों एक हैं फिर भी तुझे तो भक्त रूपी भगवान् से ही काम है। भगवान् रूपी भक्त तो भक्ति प्राप्त होने के बाद ही काम आयेंगे।
Recent Comments